ग़लतफ़हमी
दिल्ली की एक बस में हुई घटना से प्रेरित,वैसे तो ऐसी घटनाओं से प्रेरणा नहीं मिलती हैं केवल मन में रोष उत्पन होता हैं किन्तु शायद पहली बार इस वाकये को देखकर सभी यात्री हँस पड़े थे और मैंने उसे एक कविता का हास्य कविता का रूप दे दिया...
इक रोज कर रहा था, मैं बस में सफ़र,
अपनी ही धुन में था, न कोई थी खबर,
पर इस बेखबर ‘’अन्जान’’ को, कोई ताड़ रहा था,
शायद वो चुपके चुपके मुझे, निहार रहा था,
दिया जो मैंने ध्यान तो, बात समझ में आई,
आगे की सीट पर बैठी, इक हसीना नज़र आई,
जो देख देख कर मुझे, मुस्कुरा रहीं थी,
तिरछी निगाहों के तीर, मुझ पर चला रहीं थी,
पल भर में मैं भी उसकी ओर,खिंचता चला गया,
मगर उसके एक ही थप्पड़ ने, मुझे होश में ला दिया,
थोडा संभल के बोला मैं, बता क्या मेरी हैं खता,
किस बात की आपने दी मुझे, इतनी बड़ी सजा,
कसूर तो है आपका, जो मुझे देख रहीं थीं,
तिरछी निगाहों के तीर, मुझपे फेंक रहीं थीं,
अरे! अब तो इस रहस्य से, जरा पर्दा तो हटा,
वो बोली बड़े प्यार से भेंगी हूँ मैं, क्या तुझे नहीं पता,
मैनें कहा मोहतरमा, मैं तो कुछ और ही समझ रहा था,
माफ़ कीजेयेगा बहनजी, मैं बड़ी ग़लतफ़हमी मे था.
ये घटना कब घटी थी आपके साथ..मुझे तो बताया ही नहीं
ReplyDeleteआपके गाल पे रसीद हुए..कोमल हाथों का राज सुनाया ही नहीं
उस सुन्दर चेहरे और और उन धोखेबाज आँखों का हाल बताया ही नहीं
बस में हुई इस मासूम घटना से अब तक पर्दा उठाया ही नहीं
कविता अच्छी है :)