इस साल की यह पहली प्रस्तुति “दोहे-दर्शन” (भाग-२) खास आपके जानिब..........
किया जतन से बाप ने, थोड़ा सामान सहेज,
फिर भी बलि चढ़ गयी, जब मिला न उन्हें दहेज,
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जिसने जब ये जान लिया, अपने अंदर का भेद,
कि पार नहीं हो सकता कोई, जब हो नाव में छेद,
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दोनों दीन के दुःख हरे हैं, दोनों की शान अज़ीम,
मस्जिद में रहें राम, या फिर मंदिर में रहें रहीम,
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दुःख पड़े तो सब जपे, सुख में करें ना याद,
इसी बात को सोचकर, है अन्दर मूरत उदास,
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मैंने कह दी सब बातें, अपनी तरफ से साफ़
तुम समझो या ना समझो, अल्लाह करे माफ,
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सहती रहती जुल्म अपने पर, उसमे भी तो है जाँ,
है वो भी किसी की बेटी- बहन, या फिर किसी की माँ,
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पाँव नहीं पसारेगा, कैसा भी हो भ्रष्टाचार,
त्याग दे जब लालच को, और रखें शुद्ध विचार,
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जब मेंढक टर्राने लगे, और कौवे करें कांव कांव,
तब बगुले के भेष में, नेता घुसते देखो गाँव गाँव,
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वो बैठा परदेश में, सब कुछ भूले-भाल,
बूढी अंखियाँ तक रही, कब आओगे लाल,
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पाप पुण्य के फेर में, फसें रहें जीवन भर,
छोटी छोटी खुशियों को, कर गए इधर-उधर,
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सूखी धरती-प्यासी आँखें, भूखे पेट-कई सवाल,
दिल्ली तो बहरी भई, अब किससे कहैं वो हाल,
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लड़ने से कुछ हासिल नहीं, क्या तेरा क्या मेरा,
जिस दिन खुले आँख जब, तब समझो भया सवेरा,
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