आज इस मुंडेर पर,
जब कुछ कबूतरों को दाना चुगते देखा
तो अम्मा याद आ गयी,
लगता है कल की ही बात हो,
जब चावल से कंकड चुनते समय वो,
ड़ाल देती थी कुछ दाने कबूतरों के लिए,
और कबूतर भी ऐसे, जैसे बैठे हो केवल,
अम्मा के हाथ से ही दाना चुगने,
याद है मुझे अच्छी तरह से,
ये अम्मा ही तो थी,
जो टूटे हुए एक मटके में पानी भर देती थी
मुंडेर के एक सिरे पर,
उनके पीने के लिए,
और पीते ही पानी कैसे फुर्र से उड़ जाते थे सभी,
इस वादे के साथ की कल फिर आयेंगे,
उन्हें कितना भरोसा था अम्मा पर....
और अम्मा तो बस अम्मा,
देखती रहती टकटकी लगाये उन कबूतरों को
उसी विश्वास के साथ...
ये अम्मा ही थी जब रोटी बनाते वक्त
पहली रोटी गाय के नाम की बनाती थी,
और बड़े सहेज के रखती थी कि,
उसी चितकबरी गाय को खिलाएंगी
जो हर रोज दरवाजे के सामने रंभाती थी
और वो गाय भी जताती थी कि
अम्मा हम आ गए हैं,
उसने भी अम्मा का विश्वास कभी नहीं तोडा..
ये अम्मा ही थी जब सकट चौथ के दिन,
निर्जल व्रत रख अपने लड़कों की उम्र की
दुआएं चाँद से मांगती थी और
चाँद भी देर सवेर निकल ही आता था
केवल अम्मा का व्रत तुड़वाने के लिए,
और क्या मजाल है उस चाँद का
कि उसने भी अम्मा का विश्वास
जो तोड़ा हो कभी,
पर फिर आज क्या हुआ,
वक्त बदल गया है या
परम्परायें बदल गयी है,
ये बूढी अधेड़ उम्र सी दिखने
वाली अम्मा ही तो है
जिसकी नज़र ढूंडती रहती है,
उन कबूतरों को जो कभी
अम्मा के हाथ से दाने चुगने
के लिए उनकी बाट जोहते थे,
उस गाय को जो दरवाजे
पर आके अपने हिस्से कि रोटी
के लिए रम्भा के अम्मा को बुलाती थी,
उस दिन को जब अम्मा चाँद के लिए
भूखी प्यासी शाम तलक रहती थी
सिर्फ अपने लड़कों कि लंबी उम्र के लिए,
बदला कुछ भी नहीं है,
ना वो मुंडेर, ना वो टूटा हुआ मटका,
ना वो गाय और ना ही वो सकट चौथ का दिन,
बस अब उसे कई चीखें सुनाई पड़ती है.....
चावल के दाने डालने कोई ज़रूरत नहीं हैं,
बहुत ही महंगाई है,
और हाँ जी ,
इस टूटे मटके को भी हटाओ,
एक और चीख- अपने खाने को मिलता नहीं
गाय को कौन खिलाये,
फिर एक चीख- कोई फायदा नहीं है ढोंग करने का,
कह दो इनसे,
पर ये अम्मा ही तो है जो
आज भी निर्जल वर्त रखे है
इस आस से कि कम से कम
उसका विश्वास तो ना टूटे,
चाँद आज भी उसका साथ दे रहा है,
कबूतर भी अभी तलक आते हैं,
और बिन दाना चुगे उड़ जाते है,
वो चितकबरी गाय भी आती है
और रम्भा के निकल जाती है,
किसी ने भी अम्मा का साथ नहीं छोड़ा था
तो फिर उसके विश्वास पर सेंध किसने मारी,
शायद उसके अपनो ने ही...
पर ये बात भोली अम्मा नहीं जानती थी
या जान के अन्जान बनी थी........
बहुत ही अच्छी रचना। पुरानी यादों के धुंधले साए में नए दौर की परेशानियां। वाह। कमाल कर दिया आपने।
ReplyDeleteभाई साहब, टिप्पणियों से वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें तो टिप्पणियां देने में आसानी होगी। बाकी आपकी मरजी।
ReplyDeleteGazab
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