आपके जानिब.....

आपके जानिब...आप सभी को अपनी रचनाओं के माध्यम से जोड़ने का एक सार्थक प्रयास हैं, जहाँ हर एक रचना में आप अपने आपको जुड़ा हुआ पायेंगे.. गीत ,गज़ल, व्यंग, हास्य आदि से जीवन के उन सभी पहलुओं को छुने की एक कोशिश हैं जो हम-आप कहीं पीछे छोड़ आयें हैं और कारण केवल एक हैं ---व्यस्तता

ताजगी, गहराई, विविधता, भावनाओं की इमानदारी और जिंदगी में नए भावों की तलाश हैं आपके जानिब..

Monday, July 5, 2010

भीषण बस यात्रा


टैक्सी और बस की हमारे शहर में एक समस्या हैं,

मिल गयी तो मिल गयी वरना एक तपस्या हैं,

एक दिन कि बात हैं वो बात मैं बताता हूँ,

जो बीत चुकी हैं मेरे ऊपर,

वो आपको मैं सुनाता हूँ,

मई-जून की धूप थी मैं तो बिलकुल जला था,

बस कि प्रतीक्षा के लिये, लाइन में खड़ा था,

लाइन में ज्यादा नहीं पन्द्रह-बीस ही लोग खडे थे,

कुछ सभ्य, कुछ असभ्य और कुछ मनचले थे,

लाइन में महिलाओं कि भी कोई कमी नहीं थीं,

मेकप न छूट जाये इसलिए मेकप बॉक्स लिये जमी थीं,

अचानक एक महिला को लग गया धक्का,

उसका गुस्सा पीछे खड़े एक युवक पर भड़का,

मैं पीछे खड़ा देख यही सोच रहा था,

कि भई अब तो युद्ध हो गया,

किन्तु वह युवक महिला के एक ही झापड़ में शुद्ध हो गया,

और पता भी नहीं चला कि कहाँ गायब हो गया,

लाइन बढती जा रहीं थी,

और बस आने का नाम नहीं ले रही थी,

तभी एक सज्जन ने दूसरे सज्जन से पूछा-

भाईसाहब आपको कहाँ जाना हैं,

वे बोले- जहाँ जाना था, वहाँ तो लगता नहीं कि पहुँच पाऊंगा

थोड़ी देर और खड़ा रहा तो परलोक ज़रूर पहुँच जाऊंगा,

अचानक मैंने देखा कि एक साहब,

बार बार फेर रहे थे अपने पेट पर अपना हाथ,

मैंने पूछा क्या हुआ भाईसाहब- क्या आपको बदहजमी हैं,

वे बोले- जी नहीं,ये समस्या अभी जन्मी हैं,

मैंने कहा-ऐसा वैसा चक्कर हो तो यहं से निकल भागियेगा,

सार्वजानिक स्थल पर कचरा न हो जाये, ऐसा ख्याल रखियेगा,

उन्होंने मान ली मेरी सलाह,

और वहाँ से हो गये नौ दो ग्यारह,

अचानक आती हुई बस को देख कर,

सभी के चहरे खिल पड़े,

कई तो बस को देखने के लिये ही गिर पड़े,

मुझे भी कुछ समझ में नहीं आया,

ऐसा धक्का लगा कि सीधा अपने आपको बस के अंदर पाया,

बस के अंदर के दृश्य को देखकर,

मैं रह गया हक्का बक्का,

बस- बस न लगकर लग रही थी, रेल के जरनल का डिब्बा,

इतनी भीड़-इतनी भीड़ कि लोग बाहर तक लटके हुए थे,

और हम किसी तरह बीच में ही अटके हुए थे,

आगे बढने की कोई नहीं थी जगह,

मैने सोचा कि आज तो बुरा फसां,

पीछे देखा तो खड़ा था एक नौजवान,

लगता था पूरा यमराज का पहलवान,

मुझसे बोला- भाईसाहब आगे खिसकियेगा,

मैंने कहा- आगे जगह नहीं हैं कैसे खिसक जाऊँगा,

वो बोला- मेरा भी टिकेट लो,

तो दौं इंच आगे बढाने का जिम्मा मैं उठाऊंगा,

मैंने कहा- माफ़ करना पहलवान जी हम ऐसे ही भले हैं,

और अपनी जगह हम ठीक ठाक खडें हैं,

अचानक बस लगी जोर जोर से हिलने,

किसी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था,

कि ये क्या हो गया,

पीछे देखा तो पता चला कि एक मोटा घुस गया,

जो बार बार अपनी तोंद को हाथ से सहला रहा हैं,

और बस को उसी अंदाज से हिला रहा हैं,

सभी चिल्ला पड़े कि इस मोटे को बस से उतारो,

वरना ये कुछ भी करवा देगा,

अपना तो मरेगा ही हम सबको भी मरवा देगा,

तभी बस में हुआ धमाका,

मैंने इधर उधर झाँका, और बोला- कि

अब कौन सी मुसीबत टपकी,

पता चला कि मोटे को लग गई हैं झपकी,

उसके एक तरफ बैठ कर सोने से,

बस का पिछला टायर हो गया है ध्वस्त,

अकेले मोटे ने ही बस कि हालत कर दी है पस्त,

मैंने सोचा कि बस से उतरने में ही है भलाई,

और आज के बाद बस यात्रा से मैंने तौबा खाई.

2 comments:

  1. अच्छी हास्य कथा रच दी है आपने ..सुन्दर प्रस्तुति

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