आपके जानिब.....

आपके जानिब...आप सभी को अपनी रचनाओं के माध्यम से जोड़ने का एक सार्थक प्रयास हैं, जहाँ हर एक रचना में आप अपने आपको जुड़ा हुआ पायेंगे.. गीत ,गज़ल, व्यंग, हास्य आदि से जीवन के उन सभी पहलुओं को छुने की एक कोशिश हैं जो हम-आप कहीं पीछे छोड़ आयें हैं और कारण केवल एक हैं ---व्यस्तता

ताजगी, गहराई, विविधता, भावनाओं की इमानदारी और जिंदगी में नए भावों की तलाश हैं आपके जानिब..

Friday, August 19, 2011

ग़ज़ल

मत समझना की मैंने पी रखी हैं,

बहुत दिनों से ये जुबाँ सी रखी हैं,

तुमने दिया है आज कुछ कहने का मौका,

इसलिए तस्वीर तेरी सीने से लगा रखी हैं,

दिल की बात कहने के अपने हैं कुछ उसूल,

बाकी बातें दिमाग की अब लगती हैं फिजूल,

फसां हुआ था मैं बस इसी कशमकश में,

कि दिल और दिमाग ने ये क्या लगा रखी हैं,

मत समझना की मैंने पी रखी हैं,

बहुत दिनों से ये जुबाँ सी रखी हैं,

किस भूल की आपने हमें ऐसी दी सजा,

अचानक हुए गुम हमें पता भी ना चला,

थक गयी निगाहें तुम्हे जब हर जगह दूंढ के,

एहसास हुआ तब हमें क्या चीज़ गवां रखी हैं,

मत समझना की मैंने पी रखी हैं,

बहुत दिनों से ये जुबाँ सी रखी हैं,

मुद्तों के बाद आज जब देखा हैं तुम्हें,

सुकून सा दिल को ‘अन्जान’ आया है हमें,

वही मासूमियत भरा चेहरा वही मुस्कुराहट है दिखी,

तो लगा खुदा ने मेरी चीज़ आज भी संभाल रखी हैं,

मत समझना की मैंने पी रखी हैं,

बहुत दिनों से ये जुबाँ सी रखी हैं,

Monday, April 4, 2011

लंका दहन

धोनी के धुरंधरों को मेरी तरफ से ये एक सप्रेम भेंट......

गंभीर विशाल विकराल रूप धारण कर,

धोनी ने आते ही मार काट मचाई है,

पहले परेरा कटे फिर कुलसेकरा मरे,

बाद में दिलशान की भी मुंडी उड़ाई है,

लंका को दफनाएँगे, वर्ल्ड कप लायेंगे,

लग रहा कसम इन दोनों ने खायी है,

कहत ‘’अन्जान’’ कवि, मुरली कैसे बच निकला

फिर धोनी ने मुरली की भी, मुरली बजाई है,


ओर-पोर, छोर-छोर मारे ये चहुँ ओर

कौन कह सकता है ये गंभीर धोनी हैं,

एक मारे square कट दूसरा मारे फटाफट,

लगता है जीत अब भारत की ही होनी है,

सोये हुए शेर देखो अचानक आज जाग उठे,

युवी ने भी देखो यार मस्त बाल टांगी है,

कहत ‘’अन्जान’’ कवि मुंबई के वानखेड़े में,

व्याकुल से लंकाई इधर उधर भागी है,


थरंगा को फोड दिया महेला को छोड़ दिया,

संगकारा-दिलशान की भी सीटी बाजाई है,

पहले ज़हीर ने ओर फिर हरभजन ने,

बाद में मुनाफ ने लंका में आग लगाई है,

लंका अब सपने में भी भारत से है डरे,

उनको तो पूरी टीम, हनुमान नज़र आई है,

कहत ‘’अन्जान’’ कवि सचिन के प्रताप से,

पूरी ही टीम ने मिलके, लंका ढहाई है....

Friday, February 4, 2011

इक कड़वा सच ...अम्मा

आज इस मुंडेर पर,

जब कुछ कबूतरों को दाना चुगते देखा

तो अम्मा याद आ गयी,

लगता है कल की ही बात हो,

जब चावल से कंकड चुनते समय वो,

ड़ाल देती थी कुछ दाने कबूतरों के लिए,

और कबूतर भी ऐसे, जैसे बैठे हो केवल,

अम्मा के हाथ से ही दाना चुगने,

याद है मुझे अच्छी तरह से,

ये अम्मा ही तो थी,

जो टूटे हुए एक मटके में पानी भर देती थी

मुंडेर के एक सिरे पर,

उनके पीने के लिए,

और पीते ही पानी कैसे फुर्र से उड़ जाते थे सभी,

इस वादे के साथ की कल फिर आयेंगे,

उन्हें कितना भरोसा था अम्मा पर....

और अम्मा तो बस अम्मा,

देखती रहती टकटकी लगाये उन कबूतरों को

उसी विश्वास के साथ...

ये अम्मा ही थी जब रोटी बनाते वक्त

पहली रोटी गाय के नाम की बनाती थी,

और बड़े सहेज के रखती थी कि,

उसी चितकबरी गाय को खिलाएंगी

जो हर रोज दरवाजे के सामने रंभाती थी

और वो गाय भी जताती थी कि

अम्मा हम आ गए हैं,

उसने भी अम्मा का विश्वास कभी नहीं तोडा..

ये अम्मा ही थी जब सकट चौथ के दिन,

निर्जल व्रत रख अपने लड़कों की उम्र की

दुआएं चाँद से मांगती थी और

चाँद भी देर सवेर निकल ही आता था

केवल अम्मा का व्रत तुड़वाने के लिए,

और क्या मजाल है उस चाँद का

कि उसने भी अम्मा का विश्वास

जो तोड़ा हो कभी,

पर फिर आज क्या हुआ,

वक्त बदल गया है या

परम्परायें बदल गयी है,

ये बूढी अधेड़ उम्र सी दिखने

वाली अम्मा ही तो है

जिसकी नज़र ढूंडती रहती है,

उन कबूतरों को जो कभी

अम्मा के हाथ से दाने चुगने

के लिए उनकी बाट जोहते थे,

उस गाय को जो दरवाजे

पर आके अपने हिस्से कि रोटी

के लिए रम्भा के अम्मा को बुलाती थी,

उस दिन को जब अम्मा चाँद के लिए

भूखी प्यासी शाम तलक रहती थी

सिर्फ अपने लड़कों कि लंबी उम्र के लिए,

बदला कुछ भी नहीं है,

ना वो मुंडेर, ना वो टूटा हुआ मटका,

ना वो गाय और ना ही वो सकट चौथ का दिन,

बस अब उसे कई चीखें सुनाई पड़ती है.....

चावल के दाने डालने कोई ज़रूरत नहीं हैं,

बहुत ही महंगाई है,

और हाँ जी ,

इस टूटे मटके को भी हटाओ,

एक और चीख- अपने खाने को मिलता नहीं

गाय को कौन खिलाये,

फिर एक चीख- कोई फायदा नहीं है ढोंग करने का,

कह दो इनसे,

पर ये अम्मा ही तो है जो

आज भी निर्जल वर्त रखे है

इस आस से कि कम से कम

उसका विश्वास तो ना टूटे,

चाँद आज भी उसका साथ दे रहा है,

कबूतर भी अभी तलक आते हैं,

और बिन दाना चुगे उड़ जाते है,

वो चितकबरी गाय भी आती है

और रम्भा के निकल जाती है,

किसी ने भी अम्मा का साथ नहीं छोड़ा था

तो फिर उसके विश्वास पर सेंध किसने मारी,

शायद उसके अपनो ने ही...

पर ये बात भोली अम्मा नहीं जानती थी

या जान के अन्जान बनी थी........

Sunday, January 2, 2011

ग़ज़ल

कितनी बात छिपी हुई हैं, इस दिल की गहराई में,

तुम आओ तो बात करें हम, मिलकर इस तन्हाई में,

मौसम कितने बीत गए हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं,

तुमको कितने खत हैं लिखे, पर इक का भी जवाब नहीं,

अपना हाल कहें अब किससे, याद भरी पुरवाई में,

तुम आओ तो बात करें हम, मिलकर इस तन्हाई में,

दिन काटे अब कटते नहीं हैं, रातें डसती रहती हैं,

इक बैचेनी सी हैं मन में, जिंदगी बोझिल लगती हैं,

तू ही तू याद है मुझको, देखूं तुझे परछाई में,

तुम आओ तो बात करें हम, मिलकर इस तन्हाई में,

बंधन सारे तोड़ के तुम, आ जाओ बस इस पल में,

देखे थे जो ख़्वाब हमने, बदले उसे हकीकत में,

सारे गुनाह अब मेरे सिर पर, क्या रखा है जुदाई में,

तुम आओ तो बात करें हम, मिलकर इस तन्हाई में,

Saturday, January 1, 2011

दोहे- दर्शन

आज कुछ नया लिखने का मन हुआ तो सोचा कुछ कम शब्दों में अपनी बात कही जाए और फिर मुझे दोहे याद आये.. बातें सब पुरानी ही हैं पर उन्हें नए कलेवर में ढालने का प्रयास किया है..नव वर्ष की बधाई के साथ इस साल की यह पहली प्रस्तुति खास आपके जानिब.......


सीधी सादी बात को, क्यों देते हो तूल,

अहं छोड़ के मान लो, हुयी जो कोई भूल,

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तुझमें है इच्छा शक्ति, फिर क्यों तू कुछ मांग,

छूना है आकाश को, तो पहले मार छलांग,

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सब कुछ अपना वार के, दे देती है जाँ,

जिस स्त्री में है ये गुण, वो कहलाये माँ,

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जितनी सेवा हो सके, उससे ज्यादा कर,

ये रत्न अमूल्य हैं, बुजुर्गों से है घर,

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वो बैठा किनारे पर, लेकर बस इक चाह,

आँखों में दिखती है, दो रोटी की आह,

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मंदिर बने मस्जिद बने, आज भी है ये शोर,

सीख ना ली परिंदों से, जो बैठते दोनों ओर,

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निकल पड़ा सवेरे ही, हो कर थकने चूर,

बच्चे खुश हो जायेंगे, जब लौटेगा मजदूर,

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भूखे को रोटी नहीं, महंगाई की मार,

कब तक सोती रहेगी, दिल्ली की सरकार,

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सब कुछ तो है बिक चुका, सिर्फ बची है जान,

अन्न कहाँ से पैदा करे, ऋण से दबा किसान,

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