आपके जानिब.....

आपके जानिब...आप सभी को अपनी रचनाओं के माध्यम से जोड़ने का एक सार्थक प्रयास हैं, जहाँ हर एक रचना में आप अपने आपको जुड़ा हुआ पायेंगे.. गीत ,गज़ल, व्यंग, हास्य आदि से जीवन के उन सभी पहलुओं को छुने की एक कोशिश हैं जो हम-आप कहीं पीछे छोड़ आयें हैं और कारण केवल एक हैं ---व्यस्तता

ताजगी, गहराई, विविधता, भावनाओं की इमानदारी और जिंदगी में नए भावों की तलाश हैं आपके जानिब..

Thursday, November 18, 2010

एक नई सुबह की खोज में

रात के पहर में होता हूँ जब तन्हा, तो सोचता हूँ,

कि इस तमस को दूर करने की, सुबह कब आयेगी,

व्याकुल मन अब ग्रसित, इस भय से,

भोर से पहले कहीं ये, नींद न खुल जायेगी,

कि इस तमस को दूर करने की, सुबह कब आयेगी

ये वृक्ष की शाखायें, जो दिवस मुझे अच्छे लगे,

इस पहर में क्यों मुझे, वो इतने भयावह लगे,

और सड़क के इस सिरे पर, जो रहती थी इतनी चहल पहल,

अब इस पहर में वो, क्यों मुझे इतनी वीरान लगे,

रहता हूँ इसी उधेडबुन में, मन की ये उलझन कब जायेगी,

कि इस तमस को दूर करने की, सुबह कब आयेगी,

कोई तो है जो रोकता है, भोर को आने से यार,

कोई तो है जो चाहता है, तमस रहे बरक़रार,

दूर बैठे यही सोचते हैं सुख, समृद्धि और प्रेम राग,

कि लोभ, माया, देव्ष-इर्ष्या, बढ़ा रहे अपना आकार,

ये सोचते ही मन की अग्नि, फिर न कहीं धधक जायेगी,

कि इस तमस को दूर करने की, सुबह कब आयेगी,

टीस है बस मन की यही, कि जानता है मन सभी,

हो न क्यों कितना ही अँधेरा, रौशनी तो आयेगी,

ये ख्याल आते ही बस, मन अब यही सोचता हैं,

कि ठंडी ठंडी निश्चल हवा जब, बदन को सहलायेगी,

पंछियों कि किलकारियाँ जब, हलके से थप-थपायेगी,

सूरज का आगमन और विदाई चाँद की, तारों के साथ हो जायेगी,

स्वपन बीती बात होंगे और हकीकत, सामने हो आयेगी,

तब समझना मेरे दोस्तों! अपनी सुबह हो जायेगी,

Wednesday, November 17, 2010

नन्ही कली

बागीचे में खिली खिली, इक नन्ही मासूम कली,

दूंढ रही हैं अपने अस्तित्व में, लाने वाले उस जनक को

जिसने अपने श्रम से सिंचित, उसे किया इतनी हरी भरी,

दूंढ रही है अब उसे, ये नन्ही मासूम कली.....

पूछा उसने उन बड़े बड़े फूलों से,जो बागीचे में महक रहे थे,

पूछा उसने उन शूलों से,जो अब चुभने के लिए खड़े थे,

पूछा उसने उन भवरों से,जो उस पर मंडरा रहे थे,

पर निरुत्तर से खड़े सभी,इक दूजे को ताक रहे थे,

उनके उतरे चेहरे देख, हो उठी मायूस कली,

दूंढ रही उस जनक को, जिसने किया उसे हरी भरी,

कुम्हलाई मुरझाई सी, झुकी झुकी अलसाई सी,

देखा जब उसने धरा पर, धरती फिर अकुलाई सी,

मन की व्यथा कली की जान,धरती बोली सुन नन्ही जान,

तू मेरे ही गर्भ से निकली, फिर क्यों हो मायूस हैरान,

जिसने तुझको बोया मुझमें, जिसने किया तेरा ये श्रिंगार,

वो तो केवल ईश्वर है, जिसने लिया बस मानवीय अवतार,

खो जायेगी व्यर्थ में यूँ ही, जीवन एक समंदर है,

फिर क्यों पगली दूंढ रही उसे, जो तेरे ही अंदर है,

तू जन्मी है इस धरा पर, बन कर फूल महकने को,

और अपनी मादक महक से, सम्पूर्ण धरा वश करने को,

बात समझ में आते ही, उठ खड़ी हुई निडर-सबल कली,

दिखी नई चमक सी उसमे, खुल के खिली वो नन्ही कली...