रात के पहर में होता हूँ जब तन्हा, तो सोचता हूँ,
कि इस तमस को दूर करने की, सुबह कब आयेगी,
व्याकुल मन अब ग्रसित, इस भय से,
भोर से पहले कहीं ये, नींद न खुल जायेगी,
कि इस तमस को दूर करने की, सुबह कब आयेगी
ये वृक्ष की शाखायें, जो दिवस मुझे अच्छे लगे,
इस पहर में क्यों मुझे, वो इतने भयावह लगे,
और सड़क के इस सिरे पर, जो रहती थी इतनी चहल पहल,
अब इस पहर में वो, क्यों मुझे इतनी वीरान लगे,
रहता हूँ इसी उधेडबुन में, मन की ये उलझन कब जायेगी,
कि इस तमस को दूर करने की, सुबह कब आयेगी,
कोई तो है जो रोकता है, भोर को आने से यार,
कोई तो है जो चाहता है, तमस रहे बरक़रार,
दूर बैठे यही सोचते हैं सुख, समृद्धि और प्रेम राग,
कि लोभ, माया, देव्ष-इर्ष्या, बढ़ा रहे अपना आकार,
ये सोचते ही मन की अग्नि, फिर न कहीं धधक जायेगी,
कि इस तमस को दूर करने की, सुबह कब आयेगी,
टीस है बस मन की यही, कि जानता है मन सभी,
हो न क्यों कितना ही अँधेरा, रौशनी तो आयेगी,
ये ख्याल आते ही बस, मन अब यही सोचता हैं,
कि ठंडी ठंडी निश्चल हवा जब, बदन को सहलायेगी,
पंछियों कि किलकारियाँ जब, हलके से थप-थपायेगी,
सूरज का आगमन और विदाई चाँद की, तारों के साथ हो जायेगी,
स्वपन बीती बात होंगे और हकीकत, सामने हो आयेगी,
तब समझना मेरे दोस्तों! अपनी सुबह हो जायेगी,